विधानसभा चुनाव को लेकर भारत के राजनीतिक गलियारे में हड़कंप मचा हुआ है। चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision) के चुनाव आयोग के फैसले को लेकर विपक्षी दलों खासकर इंडिया गठबंधन ने कड़ी आपत्ति जताई है। उनका आरोप है कि इस कदम के पीछे किसी राजनीतिक एजेंडे के तहत लाखों-करोड़ों मतदाताओं को वोट डालने से बेदखल करने की तैयारी की जा रही है, जिससे चुनावी परिणामों पर बड़ा असर पड़ेगा।
विपक्षी दलों की चुनाव आयोग से मुलाकात
बुधवार को कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), समाजवादी पार्टी (सपा), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI), सीपीआई (एमएल) समेत 11 विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात की। इस बैठक में विपक्षी नेताओं ने चुनाव आयोग के मतदाता सूची पुनरीक्षण के आदेश पर विरोध जताया। उन्होंने कहा कि मतदाता सत्यापन के लिए जिन 11 दस्तावेजों की मांग की गई है, वे अधिकांश गरीब, दलित, मजदूर और अन्य वंचित वर्ग के लोगों के पास नहीं होंगे। इससे करोड़ों लोग मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं और उनका मतदान का अधिकार प्रभावित होगा।
विपक्ष ने यह भी कहा कि बिहार जैसे राज्य में लाखों लोग दूसरे राज्यों में काम करते हैं, ऐसे में उनकी मतदाता पहचान के लिए इतने कठोर दस्तावेज जुटाना व्यावहारिक नहीं है। इससे उनकी लोकतांत्रिक भागीदारी को बड़ा नुकसान पहुंचेगा।
कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी का तंज
कांग्रेस के वरिष्ठ वकील और नेता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि बिहार में 2003 में भी विशेष गहन पुनरीक्षण हुआ था, लेकिन उस वक्त विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक कम से कम एक-दो साल का समय था। इस बार चुनाव से ठीक पहले अचानक इस आदेश से सवाल उठता है कि क्या पिछले 22 वर्षों में बिहार में हुए चुनाव अवैध थे? उन्होंने चुनाव आयोग से पूछा कि 22 सालों में हुए सभी चुनावों की वैधता पर संदेह क्यों किया जा रहा है?
सिंघवी ने कहा कि बिहार में करीब 8 करोड़ मतदाता हैं और इतने बड़े जनसंख्या के गहन सत्यापन के लिए इतने कम समय में तैयार होना लगभग नामुमकिन है। इसके साथ ही पहली बार जन्म प्रमाण पत्र सहित 11 दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, जिनमें कई दस्तावेज गरीबों और पिछड़े वर्ग के लिए जुटाना बेहद मुश्किल है। यह एक तरह से मतदाता सूची से लोगों को बाहर करने का खेल है।
आधार कार्ड के बाद अब जन्म प्रमाण पत्र
सिंघवी ने बताया कि पिछले कई वर्षों से हर सरकारी कार्य में आधार कार्ड अनिवार्य किया जा रहा है, लेकिन अब मतदाता पहचान के लिए जन्म प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज भी अनिवार्य किए जा रहे हैं। विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो 1987 से 2012 के बीच पैदा हुए हैं, उनके माता-पिता के जन्म प्रमाण पत्र भी मांगे जा रहे हैं। बिहार जैसे गरीब और ग्रामीण राज्यों में इस तरह के दस्तावेज जुटाना लाखों लोगों के लिए मुश्किल है और इसके कारण कई मतदाता वोटिंग लिस्ट से बाहर रह जाएंगे।
प्रतिनिधिमंडल ने चुनाव आयोग के समक्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का भी हवाला दिया, जिनमें मतदाता सूची से बेदखली को लेकर कई बार निर्देश जारी किए गए हैं। उन्होंने कहा कि यह आदेश संविधान और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है।
चुनाव आयोग का नया आदेश और विपक्ष की नाराजगी
चुनाव आयोग ने हाल ही में एक नया आदेश भी जारी किया है, जिसके तहत आयोग की बैठक में प्रत्येक पार्टी के केवल दो प्रतिनिधि ही उपस्थित हो सकते हैं। इस आदेश पर विपक्षी दलों ने भी आपत्ति जताई। कांग्रेस के जयराम रमेश, पवन खेड़ा, अखिलेश सिंह समेत कई वरिष्ठ नेताओं को बैठक में शामिल होने से रोक दिया गया।
डॉ. सिंघवी ने कहा कि इस प्रकार के आदेश से विपक्ष का प्रतिनिधित्व सीमित हो जाता है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर पड़ती है। इस बीच राजद सांसद मनोज झा, सपा सांसद हरेंद्र मलिक, सीपीआई नेता डी राजा, सीपीआई (एमएल) के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य सहित कई वरिष्ठ नेता चुनाव आयोग के प्रतिनिधिमंडल में मौजूद थे।
विपक्षी दलों का आरोप और आगामी रणनीति
इंडिया गठबंधन का कहना है कि इस पुनरीक्षण के जरिए करोड़ों मतदाताओं को वोट डालने से बाहर करने की साजिश हो रही है। वे इसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह मानते हैं। विपक्ष ने चेतावनी दी है कि यदि चुनाव आयोग अपनी इस योजना पर कायम रहा तो वे सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करेंगे और लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष करेंगे।
विपक्षी दलों का मानना है कि वोटर सूची का पुनरीक्षण आवश्यक हो सकता है, लेकिन उसे निष्पक्ष, पारदर्शी और सभी वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। गरीब, मजदूर, प्रवासी और दलित मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा किए बिना कोई पुनरीक्षण लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करेगा।