र्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को उनकी विवादास्पद ‘लिबरेशन डे टैरिफ’ नीति पर अमेरिका की एक संघीय अदालत से बड़ा झटका लगा है। मैनहैटन स्थित कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड की तीन जजों की पीठ ने इस टैरिफ को अस्थायी रूप से रोकते हुए इसे व्यापारिक स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा के खिलाफ बताया है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ट्रंप ने अपने पूर्व राष्ट्रपति पद का अनुचित लाभ उठाया है और यह कदम राजनीतिक फायदे के उद्देश्य से उठाया गया था।
क्या है ‘लिबरेशन डे टैरिफ’?
यह टैरिफ ट्रंप द्वारा उन देशों पर लागू किया गया था, जो अमेरिका से कम सामान खरीदते हैं लेकिन अमेरिका को अपना माल अधिक बेचते हैं। इस टैरिफ को ट्रंप ने ‘लिबरेशन डे टैरिफ’ नाम दिया और इसे राष्ट्रभक्ति से जोड़ा। ट्रंप का तर्क था कि इससे अमेरिका को व्यापार घाटे से राहत मिलेगी और विदेशी कंपनियों पर दबाव बनेगा कि वे अमेरिका से अधिक आयात करें।
हालांकि, इस नीति को लेकर शुरुआत से ही विवाद रहा। इसे अमेरिका के व्यापारिक सहयोगियों ने प्रोटेक्शनिज़्म (संरक्षणवाद) का प्रतीक बताया, वहीं देश के भीतर उद्योग और कानूनी विशेषज्ञों ने इसे संविधान विरोधी करार दिया।
कोर्ट का फैसला: "पूर्व पद का गलत इस्तेमाल"
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ट्रंप ने अपने पूर्व राष्ट्रपति पद और उससे जुड़े प्रभाव का इस्तेमाल कर इस टैरिफ को लागू कराने की कोशिश की, जबकि ऐसा करना अमेरिकी संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। कोर्ट ने यह भी कहा कि व्यापार नीति को इस तरह से चलाना संविधान द्वारा तय की गई शक्तियों का उल्लंघन है।
3 जजों की बेंच का ऐतिहासिक फैसला
मैनहट्टन की कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड की तीन जजों वाली पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ट्रंप के आदेश को IEEPA (International Emergency Economic Powers Act) के तहत न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। इस एक्ट के अनुसार, राष्ट्रपति को केवल “असामान्य और असाधारण खतरे” की स्थिति में ही आर्थिक प्रतिबंध लगाने की शक्ति मिलती है।
कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि,
“IEEPA के अंतर्गत मिलने वाले अधिकार असीमित नहीं हैं। राष्ट्रपति को जो शक्तियां मिली हैं, वे केवल विशिष्ट आपातकालीन परिस्थितियों के लिए हैं, न कि राजनीतिक लाभ के लिए।”
ट्रंप प्रशासन की दलील और अदालत की प्रतिक्रिया
ट्रंप प्रशासन के वकीलों ने 1971 की मिसाल का हवाला दिया, जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने आपातकालीन स्थिति में टैरिफ लागू किए थे। ट्रंप की टीम का कहना था कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी अमेरिका की अर्थव्यवस्था “आपातकाल” जैसी स्थिति से गुजर रही है और राष्ट्रपति को यह अधिकार है।
लेकिन अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि आपातकाल की वैधता सिर्फ कांग्रेस नहीं, बल्कि न्यायपालिका भी तय कर सकती है।
कोर्ट के अनुसार,
“राष्ट्रपति को दिए गए अधिकारों की सीमाएं तय करना केवल राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि न्यायिक निगरानी का भी हिस्सा है।”
अंतरराष्ट्रीय और घरेलू प्रभाव
इस फैसले के बाद न केवल ट्रंप की राजनीतिक छवि को झटका लगा है, बल्कि अमेरिका के व्यापारिक संबंधों पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। कई देशों ने पहले ही लिबरेशन डे टैरिफ को लेकर अमेरिका से आर्थिक जवाबी कार्रवाई की चेतावनी दी थी।
भारत और यूरोपीय यूनियन जैसे साझेदारों ने इस फैसले का स्वागत किया है, क्योंकि यह वैश्विक व्यापार व्यवस्था की निष्पक्षता की रक्षा करता है।
ट्रंप की टीम का दावा: “भारत-पाकिस्तान सीजफायर पर असर”
इस टैरिफ नीति पर लगी रोक के बाद ट्रंप प्रशासन की टीम ने एक और विवादित बयान देते हुए दावा किया कि यदि यह फैसला पलटा नहीं गया, तो इसका असर भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे सीजफायर पर भी पड़ सकता है। उनका तर्क था कि अमेरिका की व्यापारिक शक्ति का कमजोर होना, एशिया में शक्ति संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
हालांकि, इस तर्क को विवादास्पद और अतिरंजित माना जा रहा है, क्योंकि अमेरिकी टैरिफ नीति का भारत-पाक रिश्तों से कोई सीधा संबंध नहीं है।
निष्कर्ष: संविधान बनाम राजनीति
अमेरिकी अदालत का यह फैसला एक ऐतिहासिक उदाहरण है कि लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति — चाहे वह वर्तमान राष्ट्रपति हो या पूर्व — संविधान से ऊपर नहीं है। लिबरेशन डे टैरिफ को जिस तरह से “देशभक्ति” के नाम पर प्रचारित किया गया, अदालत ने उसे राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित मानते हुए न्यायिक रोक लगाई।
इससे स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका, संविधान की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है और वह राजनीतिक फैसलों पर भी कानूनी समीक्षा करने का अधिकार रखती है। ट्रंप जैसे कद्दावर नेता के लिए यह फैसला कानूनी संतुलन की मजबूत मिसाल बन गया है।
अब देखना होगा कि ट्रंप इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हैं या राजनीतिक बयानबाजी तक ही सीमित रहते हैं। एक बात तय है — अमेरिकी लोकतंत्र में शक्ति का संतुलन अभी भी जीवित और मजबूत है