कभी-कभी कोई फिल्म सिर्फ कहानी नहीं होती, वो एक एहसास बन जाती है — और रॉकस्टार ऐसी ही एक फिल्म थी। चौदह साल पहले जबजनार्दन जाखड़ उर्फ़ जॉर्डन ने गिटार हाथ में लिया था, तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि उसकी आवाज़ आने वाले सालों तक पीढ़ियों की नब्ज़बन जाएगी। रॉकस्टार सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि प्यार, पीड़ा और पहचान की तलाश का वो सफ़र था, जिसने हर संवेदनशील दिल को छू लिया।
रणबीर कपूर का जॉर्डन आज भी उतना ही जीवंत लगता है — एक कलाकार जो अपनी मोहब्बत और टूटन के बीच सच्चे संगीत की खोज में भटकतारहा। इम्तियाज़ अली ने इस किरदार के ज़रिए दिखाया कि कला का असली जन्म दर्द से होता है। वहीं ए.आर. रहमान का संगीत इस फिल्म की आत्माबन गया। साड्डा हक ने विद्रोह को आवाज़ दी, नादान परिंदे ने खोएपन को अर्थ दिया, और तुम हो ने मोहब्बत को सुकून। ये वो धुनें हैं जो वक्त के साथ पुरानी नहीं होतीं — बस और गहरी लगने लगती हैं।
रॉकस्टार ने भारतीय सिनेमा को एक नया चेहरा दिया — ऐसा चेहरा जो चमक से नहीं, सच्चाई से परिभाषित हुआ। इसकी कहानी किसी हीरो की जीतकी नहीं, बल्कि उसकी हार में छिपे सौंदर्य की थी। फिल्म के संवाद, कैमरा वर्क और भावनात्मक ईमानदारी ने दर्शकों को बार-बार लौटकर आने परमजबूर किया। यही वजह है कि आज भी जब कहीं “साड्डा हक” बजता है, तो उसके साथ सिर्फ संगीत नहीं, एक पूरा दौर लौट आता है।
चौदह साल बाद रॉकस्टार हमें याद दिलाती है कि सच्चा कला रूप कभी बूढ़ा नहीं होता। यह फिल्म उस पीढ़ी की गवाही है जिसने सीखा कि टूटना भीएक तरह की आज़ादी है, और संगीत — चाहे वो गिटार की धुन हो या दिल की धड़कन — हमेशा हमें जोड़ने का ज़रिया बनता है। शायद यही वजह हैकि रॉकस्टार आज भी सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक अधूरी मोहब्बत की अमर गूंज है।
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